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एक कहानी ऐसी भी

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रजनीश कब पैदा हुए, क्या खा कर बड़े हुए, स्कूल जाते वक्त उनके पाँव में जूते कौन से थे, उनके बुज़ुर्गों ने उन्हें प्रेरणा दी कि पत्रकार बनो.. आदि आदि.  इन सभी बातों में अधिक दिलचस्पी न लेते हुए सीधी बात की जाए तो ज़्यादा बेहतर रहेगा, ऐसा मेरा ऐसा मानना है. एक दिन अचानक पता चला कि अखबारों की “ भीड़”  में एक अखबार शामिल हुआ है, जिसका नाम है, ‘हिमाचल दस्तक’. इसी अखबार में एक पन्ने पर मौलू राम ठाकुर का आलेख पढ़ रहा हूँ. हैरानी तो है. ‘अभिव्यक्ति’ नाम के इस पन्ने पर रजनीश ने मौलू राम पर एक लंबा लेख लिखा है. मौलूराम को हिमाचल का साहित्यिक गलियारा जानता तो है, लेकिन जिस तरतीब से उनका परिचय करवाया गया है, ऐसा तो मैंने कभी न सुना था और न ही पढ़ने का अवसर मुझे मिला. इस आलेख के बाद मौलू राम के योगदान को लेकर अनेक संस्थाओं की आंखें खुलीं और उन्हें अनेक पुरस्कार भी मिले. ऐसे ही सरोज वशिष्ठ के बारे में भला सबको कहां पता था कि वो हिमाचल से ही संबंध रखने वाली एक ऐसी महिला हैं, जिसने खंजर लेकर घूमने वाले मुजरिमों के हाथ में कलम थमा दी और उन्हें लेखक बना दिया. तिहाड़ जैसी जेलों सहित अनेक जेलों में सरोज के इस कार्य को आज भी याद किया जाता है.


‘अभिव्यक्ति’ ने सरोज पर भी लिखा और फलस्वरूप उन्हें भी हाल ही में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के हाथों सम्मान मिला. अनेक महासवी गीत, झूरी लामण, और नाटी तो आपने सुने होंगे, उस पर आपके कदम भी थिरके होंगे और कई बार आपकी थकान को कुछ लोकगीतों की कुछ मधुर धुनों ने हल्का किया होगा, परन्तु उन धुनों को रचने वाले लायक राम ‘रफीक’ तो आपकी स्मृतियों में संभवतय न भी आते, लेकिन ‘अबिव्यक्ति’ के प्रयासों से यह भी संभव हुआ. सुन्दर लोहिया के योगदान के लिए उनकी पीठ इस कदर कौन थपथपा सकता था. ऐसे और भी नाम हैं उनकी सूची लम्बी हो सकती है, रामदयाल नीरज, सत्येन शर्मा, योगेश्वर शर्मा, श्रीनिवास श्रीकांत, हेतराम तनवर और जाने और कितनी ही प्रतिभाओं पर रजनीश की नजर गई. जब पाठक को मसालेदार सामग्री परोसी जा रही हो, और इसके नशे में पाठकों का एक बड़ा वर्ग उसी प्रकार फंसा हो जैसे ड्रग्स के मोहपाश में युवा पीढ़ी. बाजार के ऐसे घिनौने षड़यंत्रों के बीच रजनीश शर्मा जैसे एक युवा पत्रकार ने पत्रकारिता की एक ऐसी अलख जगाई, जो ज्ञानरंजन, नामवर सिंह से होती हुई मुबई में अनूप सेठी तक पहुंचे तो इसे एक उपलब्धि ही माना जा सकता है.


बाजार की तरफ भागती पत्रकारिता के चलते हुए भी रजनीश सृजन की तरफ भागते हैं, तो उनके इस प्रयास को सम्मानित करने की सोच रखकर ‘गुरूकुल’ ने भी एक मील पत्थर साबित किया है. रजनीश के इस कार्य को सम्मान दिया जाना, उन सभी पत्रकारों और नुमाइंदो की नींद भी खोलेगा, जिनका ध्यान अब तक रंगीन खबरों और मंत्री जी के शाही पत्रकार सम्मेलन से आगे नहीं पहुंचता है.


यह जानकर हैरानी होती है कि रजनीश ने ‘अभिव्यक्ति’ के अंतर्गत जितने भी इंटरव्यू अब तक किए हैं, सभी अपने व्यक्तिगत खर्चे पर किए हैं और अखबार से किसी प्रकार की यात्रा या अन्य भत्ते की मांग नहीं की है. उनकी इसी सोच और जज्बे को सलाम करते हुए मुझे पत्रकारिता के उस दौर की याद आती है,  जब एक ही अखबार हिमाचल में होती थी और एक अखबार को घंटों पढ़ने के बाद भी इसका जायका कई रोज रहता था. अखबार केवल खबरें लेकर नहीं आती थी, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य आदि सहित्य की अनेक विधाएँ अखबार का हिस्सा हुआ करती थीं. आज सोमवार को फलां लेख आएगा और कल “ठगड़े का रगड़ा” लोट-पोट करने वाली भाषा में व्यवस्था और राजनीति की खबर लेगा. या फिर किसी ‘लपोगड़ की डायरी” आएगी और मनोरंजन करते हुए, बहुत कुछ ऐसा सुना जाएगा, जिसमें बहुत ऊर्जा तो होगी ही, एक संदेश भी होगा और प्रोत्साहन भी. “ पागल की डायरी’ में बहुत सी ऐसी बातें होंगी जो एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में एक अनोखा उल्लास भर देगी. शांता कुमार के लेख पढने को मिलेंगे और ओम थानवी हिमाचल में एक हलचल पैदा करेंगे. इस दौर में इश्तहार अखबार से कोसों दूर रहा करते थे. हिमाचल के किसी भी कोने में एक सी खबरें मिलतीं. एक पत्रकार के पास अनेक सामग्री हुआ करती थी, हिमाचल प्रदेश क्षेत्रीय पत्रकारिता से कोसों दूर था. अखबार बसों की छतों पर सीधी-सादी पोशाक में हमारे घर आती थी और पठनीय सामग्री के साथ हमारा मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन करती थी. उस समय पत्रकार नाम के प्राणी की खबर तो मुझ जैसे गंवार को शायद ही रही होगी. शहरों में तो तब पत्रकार किसी देवता से कम कहां हुआ करते थे.


आज कम्यूटर क्रांति ने दर्जनों अखबार हमारे सामने रख दिये और उनका पहनावा भी रंग-बिरंगा और पन्ने भी. दर्जनों पत्रकार, लेकिन अखबारों से खबरें गायब है, कुल्लू को ये पता नहीं कि शिमला कैसा है और शिमला ने धर्मशाला का नाम कई दिनों से नहीं सुना. बिलासपुर अपने साथ वाले हमीरपुर से पीठ लगाए हुए भी हमीरपुर की खबर नहीं रखता. खबरों की इस  गुमशुदगी में एक चीज हर जगह एक सी नजर आती है, उसे हम इश्तहार के नाम से जानते हैं. एक मेरे पत्रकार मित्र, जो अब एक बडे अखबार में उच्च पद पर हैं,  जब कभी मेरे साथ एक आम रिपोर्टर हुआ करते थे, आज उनका तो ये मत है कि अखबार खबरों के लिए नहीं, इश्तहारों के लिए निकाली जाती है और जो जगह उसमें बच जाए उसकी खानापूर्ति खबर से की जानी चाहिए. ऐसे माहौल में पत्रकारिता में साहित्य को स्थान और सम्मान मिलना किसी विचित्र घटना जैसा तो लगेगा ही. इसी विचित्र घटना क्रम में जहां तथाकथित पत्रकारों का हुजूम दिखाई देता है, उसमें रजनीश शर्मा की चमक अलग ही है और उन जैसे सृजनशील पत्रकारों में ही पत्रकारिता में संवेदना की संभावनाओं को बल मिलता है.


आज हम रजनीश को साहित्यिक पत्रकारिता के लिए सम्मानित कर रहे हैं, लेकिन आपके साथ यह साझा करना चाहूंगा कि इससे पहले रजनीश ने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी पत्रकारिता के माध्यम से दखल दिया और उसका प्रभावशाली असर देखने को मिला है. रजनीश ने अनेक बेसहारा लोगों को अखबारों के माध्यम से सहारा देकर लोगों की जहां जानें बचाई हैं, वहीं भ्रष्टाचार से भी उनकी कलम ने कई बार दो-दो हाथ किए हैं. रजनीश की कलम कहीं अव्यवस्था से लड़ती नजर आती है, तो कहीं भ्रष्टाचार पर प्रहार करती है, वहीं इस युवा की कलम ने बेसहारों को सहारा भी दिया है. रजनीश का यह सफर जारी है… पत्रकारिता रजनीश के लिए व्यवसाय से अधिक एक जुनून है और रजनीश इसे एक ऐसे हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं जो कभी किसी का सहारा होता है तो अव्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाला एक सशक्त हथियार. रजनीश पत्रकारिता की नदी में एक ऐसे पत्थर की तरह हैं जो धारा के विरुद्ध अपना पैर जमाए खड़ा है. मेरे प्रिय कवि महेश चन्द पुनेठा की ये कविता मानो रजनीश पर ही लिखी गई हो:

अनेक पत्थर

कुछ छोटे-कुछ बड़े

लुढ़क कर आए इस नदी में

कुछ धारा के साथ बह गए

न जाने कहां चले गए

कुछ धारा से पार न पा सके

किनारों में इधर-उधर बिखर गए

कुछ धारा में डूबकर

अपने में ही खो गए

और कुछ धारा के विरुद्ध

पैर जमा कर खड़े हो गए

वही पत्थर पैदा करते रहे

नदी में हलचल

और नित नई ताजगी

वही बचा सके अपना अस्तित्व

और उन्होंने ही पाई है सुन्दरता.

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