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बचपन को प्रासंगिक बनाने वाले डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का बचपन (भाग-1)

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ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जब कोई साहित्यकार जानबूझकर साहित्य की उस धारा में दस्तक दे, जिसे उस समय कोई विधा मानने तक को तैयार न हो. फिर आजीवन उसकी साधना करता रहे. लोगों की टीका-टिप्पणी, आलोचना, विवेचना से अलिप्त केवल और केवल शब्द-साधना में जुटा रहे. अपने संपूर्ण बौद्धिक सामर्थ्य, निष्ठा, लगन, आत्मविश्वास, संवेदना, संचेतना, मेहनत, मौलिक दृष्टि, राग-अनुराग, संकल्प-विकल्प, सर्जनात्माकता, सौमनस्यता तथा सपनों से उसे इतना समृद्ध कर दे कि उसका योगदान उस विधा के लिए मील का पत्थर बन जाए. सतत लेखन करता हुआ वह अकेला ही इतनी दूर चला आए कि दूसरों के लिए उसकी उपलब्धियां महज सपना दिखाई पड़ें. फिर अपनी बहुआयामी साधना के बल पर वह लक्ष्यानुरागी एक दिन उस विधा का आइकन बन जाए. हिंदी बालसाहित्य को ऐसा ही युगप्रवर्तनकारी मुकाम देने का काम किया है‘—डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने. उन्होंने न केवल प्रचुर मात्रा में बालसाहित्य रचा, बल्कि इस क्षेत्रा में अनेक नई बहसों और आंदोलनों को जन्म देने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त है. ये बहसें और आंदोलन हिंदी बालसाहित्य में आधुनिकताबोध तथा उसकी प्रासंगिकता को बनाए के लिए अत्यावश्यक थे. ऐसे आंदोलनों से वे न सिर्फ स्वयं जुड़े, बल्कि नए लोगों को जुड़ने के लिए सतत प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहे. इस दौरान बालसाहित्य की धारा में विचलन भी आए. स्वाधीन भारत में एक ओर नवनिर्माण की प्रेरणा जगाने वाले साहित्य की जरूरत थी, इसलिए प्रगतिशील साहित्यकारों का एक वर्ग सामने आया, जिसमें बालसाहित्यकार भी सामने आए. दूसरी ओर यथास्थिति बनाए रखने के लिए विरोधी साहित्यकारों ने आलोचना-प्रत्यालोचना का सिलसिला बनाए रखा. पर वे डटे रहे. उनका सुदीर्घ लेखकीय सफर हिंदी बालसाहित्य के प्रबोधन का युग है. जिसका एक सूत्रा स्वयं डॉ. देवसरे के हाथों में है. उन्होंने खुद लगातार लिखा और निरंतर नए-नए लेखकों को प्रोत्साहन भी करते रहे. उनसे प्रेरित बालसाहित्यकारों की लंबी शृंखला है. वे हिंदी बालसाहित्य में आधुनिकतावादी धारा का नेतृत्व करते हैं. जीवन के सात दशक पार कर चुके देवसरे जी के कलम में आज भी बचपन का जोश और ऊर्जा है.


कलम के धनी देवसरे ने बालसाहित्य शोध के क्षेत्र में पहली-पहली दस्तक दी, कामयाब हुए और अपने नाम के आगे ‘डा॓क्टर’ लिखा ले गए. संपादकी में कदम रहा तो ‘पराग’ को आधुनिक दृष्टि से संपन्न किया, पत्राकारिता के नए मानक कायम किए. उनके संपादन में निकले अंक आज भी स्तरीय बालसाहित्य तथा उत्कृष्ट संपादन की कसौटी बने हैं. अनुवादकर्म से जुड़े तो बालसाहित्य से लेकर बालमनोविज्ञान तक इतनी अनुदित पुस्तकें दीं कि देशी-विदेशी धरोहरों से हिंदी बालसाहित्य निखर उठा. समीक्षाकर्म में उनकी दृष्टि बहुतों के लिए मानक का काम करती रही. यही नहीं, हिंदी में बच्चों के लिए कॉलम लेखन की शुरुआत कर उन्होंने बालअस्मिता को नए आयाम दिए. कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, समीक्षा, आलोचना, पत्रकारिता, संपादन, संयोजन, संस्मरण आदि लेखन के जितने भी क्षेत्र, जितने रंग तथा विधाएं हैं, उन सभी में उन्होंने भरपूर बालसाहित्य रचा. बालसाहित्य के क्षेत्रा में तो वे कितने ही आंदोलनों के प्रेरक, जन्मदाता, शुभेच्छु और संचालक हैं. अपने पाठकों का उन्हें भरपूर प्यार मिला. मान-सम्मान और प्रतिष्ठा भी. अनेक पुरस्कार उनके नाम से जुड़कर पुरस्कृत हुए. वे भारतीय बालसाहित्य के ‘प्रेरक-पुरुष’, नक्षत्र हिंदी बालजगत के हैं.


उनकी यात्रा एक समर्पित शब्दकार की अनथक यात्रा है. जिसमें संघर्ष हैं और बहुत से अवरोधक भी. लेकिन विराम कहीं नहीं है. यहां तक कि बीमारी ने शरीर को जकड़ा, भोजन से अधिक दवाएं खाने का महीनों लंबा सिलसिला चला रहा, तो भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. मस्तिष्क लगातार बालसाहित्य की बेहतरी और उसके उत्थान के बारे में सोचता रहा. कलम निरंतर कागज रंगती रही. अपनी समर्पित साहित्य साधना से उन्होंने बेशुमार प्रतिष्ठा बटोरी. हजारों प्रशंसक बनाए तो दर्जनों ईर्ष्यालु आलोचक भी. देश-विदेश में पहचान बनी. हिंदी बालसाहित्य के लिए वे स्वयं एक आंदोलन, एक मुकाम और एक अनवरत यात्रा हैं. बालसाहित्य के क्षेत्र में उन्होंने नए प्रयोग किए, जिनका प्रमाण हैं, उनकी तीन सौ से अधिक पुस्तकें. हिंदी बालसाहित्य का इतिहास, उनके बिना पूरा हो सके, यह संभव नहीं. उनके बारे में जानना, हिंदी बालसाहित्य की विकास यात्रा से संवाद करना भी है. कमजोर बिंदुओं की पहचान उनके साहित्य में भी की जा सकती है, परंतु उस समय हमें ध्यान रखना होगा कि वे हिंदी बालसाहित्य की नींव के पत्थर तैयार करने वाले बालसात्यिकारों में है. इसलिए वहां जो अनगढ़पन है उसी पर हिंदी बालसाहित्य की आज सुंदर इमारत निर्माणाधीन है.


हमारे बालसाहित्यकार का बचपन

मध्यप्रदेश के रीवा संभाग में एक जिला है, सतना. विंध्य की पठारियों पर आबाद, समुद्र तल से 315 मीटर ऊपर, उत्तरप्रदेश की सीमा से गलबहिंया लेता हुआ. तमसा(टोंस), सोन, पसौनी, सतना और सिमरावल जैसी नदियां उनकी पथरीली जमीन को अभिसिंचित करती रहती हैं. इन सबमें प्रमुख नदी है—तमसा. यह कौमुर की पहाड़ियों पर स्थित तमसा कुंड से अपनी यात्रा आरंभ करती है. इतिहास में वह इलाका बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है. जहां के चप्पे-चप्पे पर वीरता और बलिदान की गाथाएं रची गई हैं. वहां के लोग आज भी अपनी स्वतंत्र अस्मिता के लिए जूझ रहे हैं. वे लोग भोले हैं. अपनी आन-बान के लिए मर-मिटना उनकी शान रही है. वीरता और साहस उनके रक्त में घुले-मिले हैं. अपने वीर-बांकुरों की गौरव-गाथा यहां के लोकगायक ‘हरबोले’ जब भी गाते हैं, तो जरा-जर्जर शिराएं हुंकारने लगती हैं. ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह…’ सुभद्रा कुमारी चैहान की कविता तो सिर्फ बानगी है जो दिखाती है कि वीर बुंदेलों के स्वर में कितना ओज और सोज रहा होगा. महाभारत बाकी देश के लिए इतिहास और नीति की कथा है. पर बुदेलखंड हवा में ‘पंडवानी’ के रूप-स्वर में हुंकारने लगती है, जिसे सुनकर देह में जवानी कसमसाने लगती है. पर असली वीरता तो यहां के इतिहास, यहां की लोकगाथाओं और यहां किलों, बुर्जों के खंडहरों में छिपी है. यहां इनकी वीरगाथा सदैव श्लाघनीय रही हों, ऐसा नहीं है. उनीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही यहां के शासक श्रीविहीन होकर अंग्रेजों के पिछलग्गू बन चुके थे. पहले स्वाधीनता संग्राम में उन्होंने अपने ही देशवासियों के विरुद्ध तलवारें भांजी थीं. झांसी और ग्वालियर के विरुद्ध संग्राम में उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया. पर वह इतिहास का ऐसा मोड़ था जब बड़े-बड़ों का ईमान डिगा हुआ और हौसला पस्त था.


बुंदेलखंड का बड़ा हिस्सा कभी रीवा रियासत के अंतर्गत आता था. उसका इतिहास बहुत पुराना है. रामायण और महाभारत में इसका जिक्र आया है. यहीं चित्राकूट स्थल है, जहां राम ने वनवास के चैदह वर्ष बिताए थे. तुलसी की याद को संजोए रामवन में तुलसी संग्रहालय है. महाभारत में इस क्षेत्रा का उल्लेख हैहय, कलचुरी अथवा चेदि वंश के राज्य के रूप में हुआ है. कालांतर में बौद्ध धर्म की बयार चली तो यहां के शासक उसकी शरण में चले गए. परिव्राजक राजाओं का कोट आज भी उन दिनों की याद दिलाता है. गुप्त शासन में यह क्षेत्रा मगध के अधीन चला गया. बाद में कुछ वर्षों तक यहां मुस्लिम बादशाहों ने राज किया. जिन लोगों ने जगनकि का ‘आल्ह खंड’ पढ़ा या सुना है, वे आल्हा-ऊदल और उनकी बहादुरी को भी जानते होंगे. उन दोनों रणबांकुरों की गीतिकथाएं आज भी किंल्जिर के किले के खंडहरों में गूंजती हैं. उनीसवीं शताब्दी में यह इलाका पिंडारियों से हमले से थरथराने लगा था. उससे घबराकर तत्कालीन श्रीविहीन सम्राट जयसिंह ने अंग्रेजों की शरण ली. अंग्रेजों के इस उपकार का बदला जयसिंह के उत्तराधिकारी राजा रघुराज सिंह ने अंगे्रजों की मदद करके चुकाया. कृतज्ञता अर्पण का सिलसिला यहीं नहीं था. राजनीतिक स्वार्थ ने उसे अपने ही लोगों से लड़वाया. अंग्रेजों की चाटुकारिता को विवश किया. बदले में अंग्रेजों ने उसे ‘हिज हाइनेस’ और महाराजा की पदवी से नवाजा, सोलह तोपों की सलामी दी गई. श्रीविहीन सम्राट युद्ध के मैदान से बाहर तोपों के धमाके सुनकर मुंह मियां मिट्ठू बन लेते हैं. वीर सम्राट को मैदान में टकराती तलवारों की टंकार प्यारी लगती है.


इसी सतना जिले में ही एक तहसील है, नागोद! अठारहवीं शताब्दी तक यह उंचेहरा के नाम से जानी जाती थी. उंचेहरा, उच्चकल्प का अपभ्रंश है, जो मगध राज्य के अंतर्गत आता था. सातवीं शताब्दी में यह परिहार राजपूतों की राजधानी थी, जो माउंट आबू से विस्थापित होकर वहां पहुंचे थे और वहां के गहरवार शासकों को युद्ध में परास्त कर, अपना स्वतंत्रा राज्य कायम किया था. उनके राज्य की सीमाएं महोबा और मऊ को छूती थीं. नौवीं शताब्दी में परिहारों को चंदेलों ने पूर्व की ओर खदेड़ दिया, जहां उनके राजा धारा सिंह ने चौदहवीं शताब्दी में नागोद के किले को जीतकर अपना खोया वैभव दुबारा प्राप्त कर लिया. पंद्रहवीं शताब्दी में उंचाहेरा(उच्चकल्प) राजाभोज के अधीन था, जिसने वहां कई भवनों, मंदिरों और धर्मालयों का निर्माण कराया. 1820 में राजा जयसिंह ने जब एक ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि की, उस समय नागोद पन्ना रियासत का हिस्सा था. 1857 में वहां के राघवेंद्र सिंह ने ब्रिटिशों की मदद की. अपनों से दगा का पारितोषिक मिला. चालबाज अंग्रेजों ने उसे ग्यारह गांव सहित नागोद की रियासत का मुखिया बना दिया गया. इस अवसर पर उसको नौ तोपों की सलामी भी दी गई. राघवेंद्र सिंह नागोद के राजा कहलाने लगे, जिनकी ‘श्री’ अंग्रेजों के दरबार में बंधक थी.


नागोद की धरती बड़ी संपन्न है. यहां हीरा और पन्ना की खाने हैं. सीमेंट के बड़े-बड़े कारखाने, धुआं उगलती फैक्ट्रियां हैं. इसी नागोद एक साहित्यकार रहते थे. नाम था इकबाल बहादुर देवसरे. नवाबराय के समकालीन, उनके दोस्तों में से एक. नवाबराय की तरह ही उनका भी इतिहास लेखन में दखल था. कविता और कहानियां भी लिखते थे. मगर दोनों में एक बुनियादी अंतर था. नवाबराय किसानों और मजदूरों को पात्रा बनाते, इकबाल बहादुर देवसरे के पात्रा इतिहास के उपेक्षित और तिरष्कृत नायक थे. भूले-बिसरे चेहरे. इतिहास के कूड़ेदान में दबे, चंद फूल और कलियां. इकबाल बहादुर उन्हीं बिसरा दिए गए नायकों तथा अनूठे चरित्रों को अपने उपन्यासों के माध्यम से उजाले में लाने का प्रयास करते रहते. लिखना उनके लिए साधना थी. एक बार कलम उठाते तो मानो भाव-समाधि में चले जाते. खाना-पीना सब बिसर जाता. चेतना पात्रों के साथ हिल-मिल जाती. मन दौड़ता, कलम चलती और घटनाएं शब्दबद्ध होकर कागज को रंगती चली जातीं. रचना पूरी होते ही इतिहास का वह कोना स्फटिक-सा चमचमा उठता, जिसे वक्त विस्मृति के गर्त में ढकेल चुका था. समय की महानदी में डूब चुकी संवेदनाएं किनारे लगकर सीप-सी झिलमिलाने लगतीं. कागज पर उकेरे गए शब्द अतीत का प्रामाणिक आइना बन जाते.


एक किस्सा है, एक बार किसी उपन्यास को लिखने बैठे तो बस लिखते रहे. घंटों बीत गए. बहु विभा परेशान. दो-एक बार वे दरवाजे की ओट से ‘ससुरजी’ को लेखन में डूबे देख चुकी थीं. चाहती थीं कि लिखना रोक चाय-नाश्ते की भी सुध लें. लेकिन एक सर्जक की एकाग्रता में बिघ्न कैसे डालें! एक बार हिम्मत करके पास तक आईं. वहां जो देखा तो हैरान रह गईं. कलम की स्याही तो कभी की खत्म हो चुकी थी, किंतु भाव-तरंग में डूबे सर्जक को उसका जरा-भी भान ही नहीं था. वह तो अपने पात्रों के साथ इतिहास में उतरा हुआ था. हाथ कलम के साथ थे, मन पात्रों के बीच, उनके अनुभव और सोच से गुजरता, दूर अतीत में गोते खाता, घटनाओं का साक्षी बना हुआ. ‘बहू’ ने सोचा थोड़ी देर बाद जान जाएंगे कि शब्द सिर्फ हवा में विचर रहे हैं. इसलिए वे वहां से हट गईं. पर उत्सुकता के कारण अधिक देर के दूर न रह सकी. अनचीन्ही आशंका और कौतूहल उन्हें थोड़ी देर बाद फिर समाधिरत लेखक के करीब ले गए. इस बार फिर वही झटका. कलम की हवाई यात्रा अब भी पूर्ववत जारी थी. इसबार वे स्वयं पर संयम न रख सकीं. ‘ससुरजी’ को टोका तो जैसे वे तंद्रा से बाहर आए. अपनी बेखुदी पर खुद हैरान. ‘बहू’ के आगे कुछ शर्मिंदा भी. उसके बाद ‘ससुरजी’ के लिए तीन-चार पेन भरकर रखने की जिम्मेदारी बहू ने स्वयं संभाल ली.


1923 तक नवाबराय की भांति वे भी उर्दू में लिखते रहे. उसके बाद नवाबराय हिंदी के प्रेमचंद बने और उपन्यास सम्राट कहलाए. इकबाल बहादुर देवसरे जो थे, वही बने रहे. लेकिन अपने दोस्त की तरह वे भी उर्दू का दामन छोड़ हिंदी की शरण में आ गए. यह बात अलग है कि वर्षों तक उर्दू में रमा रहा दिमाग अब भी उसी भाषा में सोचता. कलम अलिफ-बे-ते लिखते समय ज्यादा सहज नजर आती. अपनी हर नई पुस्तक का पहला ड्राफ्ट वे उर्दू में तैयार करते. बाद में उसको हिंदी में सुधारते. सही अनुवाद के लिए बेटे या बहू की मदद भी लेते. इस बात से अनजान की चाहे-अनचाहे इस तरह वे अपने बेटे-बहू के मन में भी साहित्य का बिरवा रोप रहे हैं. उस पौधे को पानी दे रहे हैं, जो एक दिन हिंदी बालसाहित्य के नए शिखर का निर्माण करने वाला सिद्ध होगा. इतिहास का वह कालखंड स्वतंत्रा बालसाहित्य की अवधारणा से दूर था.


लेखक चाहे उर्दू का हो या हिंदी का. सिर्फ लिखकर तो पेट भर नहीं सकता. पेट भरने के लिए इकबाल बहादुर देवसरे अध्यापन से जुड़े थे. भावुक और संवेदनशील. ऐसा ही उनका विषय था. संवेदनाओं और कलात्मकता से भरपूर. जी हां, वे बच्चों को ड्राइंग पढ़ाते थे. लेकिन उनकी कलात्मकता सिर्फ रंगों को सजाने-संवारने तक सीमित न थी. साहित्य और कला के साथ उन्हें संगीत-प्रेम भी उपहार में मिला था. सधी उंगलियां हारमोनियम पर भी स्वर निकाल सकती थीं. गद्य और पद्य दोनों में उनका समान दखल था. कविता-कहानी-उपन्यास हर विधा में उन्होंने स्तरीय लेखन किया. लेकिन उपन्यास विधा को उन्होंने विशेषरूप से समृद्ध किया. उपन्यास भी दो-चार नहीं, पूरे अठारह. भारी-भरकम. अधिकांश ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर आधारित हैं. उनके अलावा कविताएं, कहानी और लेख भी. उनके लेखन में राजशाही और सामंतवाद का वह वैभव देखने को मिलता है, जिसकी नियति अपने ही बोझ से दबकर इतिहास बन जाना था. और वही हुआ भी था.


उन्हीं इकबाल बहादुर देवसरे के घर हरिकृष्ण देवसरे का जन्म हुआ, 3 मार्च, 1940 को. मां धर्मपारायण थीं. रामायण की अनुरागी. घर का काम करते-करते उसकी चौपाइयां गुनगुनाती रहतीं. मन हरिभजन में लगा रहता था. बेटे को पुकारने पर ‘हरिनाम’ अपने आप उच्चारा जाए, यही सोचकर उन्होंने बेटे का नाम ‘हरिकृष्ण’ रखा था. प्यार से वे उसको ‘हरि’ कहकर बुलातीं. हरि को उन्होंने बड़ी तपस्या के बाद पाया था. उनसे पहले एक बेटे की असमय मृत्यु हो चुकी थी. नवांकुर के साथ भी प्रकृति कोई क्रूर खेल न खेल जाए, यही सोचकर जन्म के साथ ही उसका एक कान नोंच दिया गया. देवी तो देवी है. भले ही मौत की हो, वह जूठी भेंट भला क्यों लेगी! इसलिए उसकी नजर पड़ने से पहले ही शिशु ‘हरि’ को जूठा कर दिया गया. गंवई मन का भोला विश्वास. एक मिथ. मान लिया गया कि इससे बेटा बुरी नजर और आसन्न विपदाओं से दूर रहेगा.


इसी के साथ-साथ एक और टोटका सालों-साल चलता रहा. हर जन्म दिन के अवसर पर सात सुहागिनें घर में जुटतीं. बालक हरि को एक छबरिया में बिठाया जाता. मां बेटे के लिए मंगल कामना करती, मनौतियां मांगती. लंबी उम्र के लिए प्रार्थनाएं करती. सातों सुहागिनें भी मंगलगीत में साझा करते हुए एक साथ उस छबरिया को खींचतीं. स्त्री का जीवन तप का जीवन है. फिर सुहागिन जीवन तो…अबोल-अनूठी-अनमोल साधना है. दिन-भर घर-गृहस्थी के काम में जुटना. सास-ससुर की सेवा, पशुओं की देखभाल. ऊपर से जब-तब बड़ों की डांट-फटकार और वर्जनाओं को सुनना. फिर घूंघट की ओट से चुपचाप सहते जाना.


ऐसा जन्म, जिंदगी पाकर भी जो स्त्री रात को मग्न-मन पति और घर के वुजुर्गों के पांव दबाए, पति-परमेश्वर की सेज सजाए, वंश चलाने के उसका अंश अपने गर्भ में धारण करे, करवाचैथ के दिन स्वयं निर्जला रहकर पति और बच्चों के लिए लंबी उम्र, सुख-समृद्धि की कामना करे—उसकी बोल-बानी, हाथ-परस में जस तो होगा ही. उसी जस का थोड़ा हिस्सा बालक के बुरी बलाओं से बचाने के काम आए, उसको किसी की नजर न लगे, इसलिए सातों सुहागिनें छबरिया को खींचकर अपने परस से शिशु को अभय-वर देतीं. शिशु जब तक बैठने लायक रहता, तब तक वे उसको बिठाकर खींचती. संभलकर दौड़ लगाने लायक हो जाता तो उसको छबरिया में खड़ा कर दिया जाता. और सातों सुहागिनें उसको बस छू-भर देतीं. उनके छूते ही मामूली छबरिया बच्चे की ढाल बन जाती. मंगलगीत अदृश्य कवच-कुंडल में ढल जाते.


इलाके की परंपरा. रस्म के बाद छबरिया को बहुत सहेजकर रखा जाता. साल-दर-साल. बालक जवान हो जाता. विवाह के लिए रिश्ते आने लगते, तब भी वह टोटका अन्टोक जारी रहता. विवाह की शहनाई बजने को होती, तभी उस छबरिया के विसर्जन का समय आता. विसर्जन के समय की भी रीति-रिवाज और परंपराएं थीं. शादी पक्की होते ही छबरिया को वधु-गृह भिजवा दिया जाता. वहां से वह मिठाइयों से भरकर वापस आती. एक और सुहागिन के साथ. साथ आई मिठाई को गांव-जवार सब जगह बंटवाया जाता. मानो इतनी देर तक सुहागिनों के आशीर्वाद फलने पर खुशी मनाई जा रही हो. उस खुशी पर गांव-ज्वार के सब लोग मुंह मीठा कर लें, तब जाकर वह रस्म पूरी होती. माता-पिता के साथ वे सुहागिनें भी मानो निश्चिंत हो जातीं. शायद यह सोचकर कि जातक की रक्षा के लिए उनकी जगह एक और सुहागिन है. पतिवृता स्त्री जो उसके लिए करवाचैथ का व्रत रखेगी. आवश्यकता पड़ने पर वह सावित्री की भांति पति के लिए यमराज से भी टक्कर ले सकती है. भारतीय संस्कृति स्त्री के ऐसे ही बलिदानों और संकल्पगाथाओं की न जाने कितनी कहानियां समेटे हुए है. हर स्त्री का जीवन अपने आप में एक बलिदान-कथा ही तो है.

क्रमश:

साभार: ओमप्रकाश कश्यप

Life Of Hari Krishna Devsare

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