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बचपन को प्रासंगिक बनाने वाले डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का बचपन (भाग-2)

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हरि को साहित्य विरासत में मिलना था. उसके घर दिग्गज साहित्यकारों का आना-जाना था. अमृतलाल नागर जब भी सतना आते तो मुलाकात जरूर करते. पिता चाहते थे कि बेटे में पढ़ने का संस्कार जन्मे. इसके लिए वे बच्चों की पत्रिकाएं घर पर नियमित रूप से मंगाते. लल्लीप्रसाद पांडेय के संपादन में छपने वाली ‘बालसखा’ तो नियमित रूप से घर आती. बालक हरि कहानियों को पढ़ता और फिर उन्हें अपने जीवन में उतारने की कोशिश करता. कहानी पढ़ते ही उसके पात्रों की खोज आरंभ हो जाती. कथानक के साथ-साथ उसकी नन्ही कल्पना हिरन-छौने-सी कुलांचें भरती. फूलों का जिक्र होता तो वह फूलों से रंग जाती. तितलियां देखता तो मन तितलियों के साथ-साथ फूलों पर मंडराने लगता. मुक्त मन आसमान में उड़ता, नदिया में तैरता. हवा में कुलांचे भरता, अंशुमाल के संग-साथ तरंगित होता और एकांत मिलते ही अपने भीतर रमण जाता. वह बच्चों के साथ खेलता. उनके साथ स्कूल जाता, उठता-बैठता, बोलता-बतियाता. मगर उसका मन कहीं और रमा रहता. बच्चों के साथ रहकर भी वह एकाकी अपनी कहानियों के पात्रों के साथ अनथक यात्रा करता. वह बादलों को देखकर चित्र बनाता. चांद-तारों के साथ परियां और बौने उसकी कल्पनाओं में आते. नदी की कल-कल उसे गुनगुनाने को मजबूर कर देती. वह चलते-फिरते सपने देता और पिता की भांति उन्हें शब्द देने का प्रयास करता था. और जैसा कि उस उम्र में होता है, शब्द कभी अनायास लय में ढल जाते, कभी तुकबंदी बनकर रह जाते. परंतु लय हो अथवा तुकबंदी उसमें सर्जनात्मकता का आनंद भरा होता, बालक हरि उस आनंद को मन ही मन महसूसता. लेखक बनने के पीछे प्रेरणा भले ही पिता की रही हो, पर उन्हें अच्छी तरह अंकुराने, हवा-पानी देने में सर्जन के अबूझ, अनूठे आनंद का योगदान कम नहीं था.


पिता-लेखक इकबाल बहादुर देवसरे विद्यालय के वार्डन भी थे. लेकिन वार्डन की परंपरागत खड़ूस छवि से एकदम मुक्त. विद्यार्थी उन्हें प्यार करते थे. उनका कहना मानते. एक अभिभावक की भांति वे भी बच्चों की भरपूर देखभाल करते. अनुशासन उन्हें प्रिय था, लेकिन सुहृदय इंसान थे. जानते थे कि बच्चे प्यार की भाषा डांट और मारपीट से अच्छी तरह समझते हैं. और यह भी बच्चे को एक बार उसकी जिम्मेदारी की एहसास करा दो, वह बड़ों से भी बड़ा बन जाएगा. रहने के लिए उन्हें विद्यालय परिसर में ही कमरा मिला हुआ था. छात्रावास के सिरे पर. ऊंचाई पर स्थित. सामने लंबा ढलान था. प्रकृति की उन्मुक्तता का एहसास दिलाता हुआ. उसके आगे बहुत बड़ा मैदान था. एकदम खुला, विस्तृत. प्राकृतिक वैभव से भरपूर.


सतना नदी जो तमसा की ही एक धारा है, विंध्य की पहाड़ियों से उतरकर नागोद की परिक्रमा करती है. उसके जल से अभिसिंचित धरा खूब फसलें लुटाती है. मौसम बहुत सुहावने होते हैं, खासकर वसंत का मौसम. उन दिनों तो धरती मानो दुलहन बन जाती है. आसमान पर छा जाने वाले काले बादल मन में अनायास न जाने कितनी कविताओं को जन्म दे जाते हैं. प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहते हुए बालक हरि ने उस चमत्कार को कई बार अनुभव किया था. आजकल प्रदूषण की मार से धरती का कोई कोना शायद ही अछूता हो, मगर जिन दिनों की चर्चा हम कर रहे हैं, उन दिनों वसंत सचमुच उल्लास लेकर आता था. मलयानिल रागिनी सुनाता था. वसंत न हो तो भी मौसम के फूल हवा में सुगंध बिखेरते रहते थे. कुल मिलाकर वातावरण बनावट से कोसों दूर, एकदम सुहावना था.


मैदान में स्कूल की ओर से हल चलवाकर बीज डाल दिए जाते. उर्वरा धरती की कोख फलती. बीज फूल बनकर खिलने लगते. बालक हरि फूलों को देखता. उनके ऊपर तितलियों और भंवरों को मंडराते हुए देखता. फूलों की सुकोमल पंखुड़ियों को सहलाता, मन ही मन उनसे बातें करता. मैदान में बच्चे फुटबाल का मैच खेलते. उनकी देखादेखी बालक हरि को भी उस खेल का चस्का लग गया. क्रिकेट उन दिनों नबावी खेल था. बालक हरि की पहुंच से दूर. गांव के बच्चे कबड्डी और गुल्ली डंडा खेलते. तालाबों-पोखरों के किनारे. खुले मैदान में गैंदतड़ी भी जमती. लड़ाई-झगड़े होते. पर बहुत जल्दी वैर-भाव बिसरा सब एक हो जाते थे. बच्चे गैंद से काम चलाते, बड़े लोग बालीबाल पर हाथ आजमाते थे. कुश्तियों के दाब-पेंच चलते. गांवों और कस्बों के पढ़े-लिखे किशोरों के बीच फुटबाल प्रिय खेल था. खेल भी ऐसा जिससे पूरे शरीर का व्यायाम एक साथ हो जाता था.


आजादी के आसपास का वह दौर था. देश-भर में नवनिर्माण का जोश था. गांव और शहर के बीच इतनी दूरी उन दिनों तक बन ही नहीं पाई थी. इसलिए पढ़े-लिखे परिवारों की स्त्रियां दूध दुहतीं. पशुओं का चारा-पानी देखतीं. सुबह होते ही घरों में चूल्हे धूआं पघारने लगते. जिंदगी की शुरुआत ही अलख जगाते हुए. बिजली से चलने वाली चक्कियां उन दिनों थीं ही नहीं. मध्यवर्गीय परिवारों में भी आटा बाहर से पिसवाकर लाना खर्चीला व्यसन माना जाता. अन्नपूर्णा गृहणियां परिवार की जरूरत के लायक आटा खुद ही निमेट लेती थीं. परिवार बड़ा होता जो दिवरानी-जिठानी बारी-बारी से चक्की पर अपना जौहर दिखातीं. पाट घुमाते हुए प्रभातियां गाई जातीं. मद्धिम स्वर में गाई जाने वाली वे प्रभातियां सुबह-सुबह तन-मन दोनों को पवित्रा कर जातीं. पाट को कौन तेज घुमा सकता है, इसे लेकर आपस में स्पर्धा भी होती. हार-जीत पर घूंघट की ओट से मन ही मन हंसती. उनकी खिलखिलाहट घर के मर्दों की नींद को निचोड़ लेतीं. उसकी ओर से मुंह फेरकर वे सोने का प्रयास करते. मगर तब तक मुर्गा बांग देकर भोर होने की मुनादी कर जाता. उसी के साथ घरों में खटपट आरंभ हो जाती. गलियां नींद से जाग जातीं. रहे-सहे घरों में भी बंद दरवाजों के पीछे चक्कियां घरघराने लगतीं. गाते-गुनगुनाते जीवनयज्ञ का शुभारंभ हो जाता.


पशु पालने की प्रथा हर घर में थी. रोज शाक-भाजी खाना तो गरीब के बस कहां. बच्चों को छाछ का पानी भी मिलता रहे, तो जिंदगी की शिकायत दूर हो जाती. मजदूर, नौकरशाह या कोई किसान हो, सभी दूध के लिए गाय या भेंस पालते. गाय को तो मां का दर्जा देने की परंपरा हिंदुओं के सदा से रही है. घरों में भैंस का महत्त्व भी कम नहीं था. पालतु पशुओं को परिवार के सदस्यों जितना ही सम्मान मिलता. मोबाइल-टेलीफोन का चलन नहीं था. फिर भी खबरें बिना पंख उड़ान भरतीं. मुंह से निकली बात घड़ी-भर में गांव की सीमा से पार हो जाती. एक भी बीमार पड़े तो पूरा परिवार उदासी से भर जाता. मौत होने पर परिवार ही नहीं, पूरा मोहल्ला मातम करने लगता था. ब्या॓त के बाद जो दूध उतरता वह पूरे मुहल्ले में बांटा जाता. मावस-पूरनमासी बनी खीर में पड़ोसियों का भी साझा होता.


सवेरे उठना किसी सैर-सपाटे या फैशन के तहत जरूरी नहीं था. बल्कि वह लोगों के संस्कार का हिस्सा था. उठते ही पहला काम पशुओं के चारेपानी का होता. दुधारू पशु का पेट पहले भरो, उसके बाद ही उससे अपने पेट के लिए कुछ उम्मीद रखो, ऐसा सोचना हमारे घरों में रहा है. इसलिए सबसे पहले पशुओं को चारा-पानी दिया जाता. किसान तो रात के तीसरे पहर उठकर ही बैलों की सानी-पानी देख आते. जिससे मुंह-अंधेरे जब काम के लिए खेतों की ओर निकलना हो तो उससे पहले ही बैल खा-पीकर ‘निश्चू’ हो जाएं. स्त्रियां घर के दुधारू पशुओं की देखभाल ठीक अपने बच्चों की तरह करतीं. उन्हीं की भांति गाय-भैंसों के भी नाम रख लिए जाते. चारा-पानी के बाद दूध दुहने का काम होता. खाई-अघायी गाय-भैंसों के थनों से अमृत बरसता.


हरि की मां भी चक्की पीसती थी. चक्की की घरघराहट से न जाने कैसा मोह था उसको. उसकी आवाज कान में पड़ते ही नींद उड़नछू हो जाती. खाट छोड़कर वह उठता. मां चक्की का पाट खींचने, कौर डालने में तल्लीन होती. वह आंखें मलता, नींद की खुमारी से लबरेज मां के पास पहुंचता और उसकी गोद में सिर रखकर जमीन पर ही पसर जाता. चक्की की घरघराहट लोरी का काम करती. ममतामयी मां के साथ धरती का सान्न्ध्यि सारी दुश्चिंताओं और बुरे सपनों को दूर खदेड़ देता. चक्की की आवाज जीवन-नाद बन जाती. सुबह का मंद समीरण स्नेहिल स्पर्श का काम करता. उचटी हुई नींद फिर से आंखों में मंडराने लगती. कचिया नींद के साथ गलबहियां लेता हरि सुबह होने का इंतजार करता रहता.


घर की जरूरत लायक आटा निमेटने के बाद मां उठती. गर्म आटे को लुगदी के बने ढल्लों में रखती. जिन्हें पुरानी कागज, कपड़ों और मुल्तानी मिट्टी के सम्मिश्रण से घर पर ही बना लिया जाता था. ये गांव की दस्तकारी का नमूना होते. जवान होती लड़की माता-पिता पुराने कागज और कपड़ों को जतन से रखते. समय आते ही उनकी लुगदी को ढल्लों का रूप दे दिया जाता. अपना हुनर दिखाने के लिए लड़कियां ढल्लों को महावर और गेरू से रंग देती. रोली और टेसु के फूल भी इसी काम आते. यही ढल्ले बेटी के ब्याह में दहेज के काम आते. बेटी के ब्याह से पहले ही सुघड़ माएं कागज की लुगदी और मुल्तानी मिट्टी के यौगिक से बर्तन बनाते. ढल्लों का जिक्र ऊपर किया गया, थोड़ी ज्यादा कारीगरी दिखाते हुए घड़े और कलश भी बना लिए जाते. फिर उनपर हल्दी, महावर और नीली स्याही से फल-फूल काढ़ दिए जाते. विवाह के समय यही बर्तन बेटी के दहेज को चार चांद लगा देते थे. उनमें जरूरत के हिसाब से आटे से लेकर अनाज तक कुछ भी भरा जा सकता था. ढल्लों पर की गई नक्काशी के लिए बीर-बहुटियां ससुराल में खूब प्रशंसा बटोरती थीं.


चक्की से आटा निकालने के बाद हाथ झाड़ना अशुभ माना जाता. उसके लिए कपड़े का उपयोग किया जाता. आटा निमेट चुकने के बाद दूध बिलोने की बारी आती. मां आहिस्ता के उठकर मथानी तक पहुंचती. अगले ही पल दूध बिलोने की झल्ल-मल्ल आवाजें आने लगतीं. नींद की खुमारी में गिरता-झूमता वह मां के पास जाकर फिर नींद में डूब जाता. झल्ल-मल्ल, झल्ल-मल्ल मथानी चलने की आवाजें, छाछ की सौंधी गंध के साथ कानों को उसेरने लगती. आखिर श्रमयज्ञ पूरा होता. हरि को भी उसकी तपस्या का फल मिलता. मां रोटी पर चीनी और मक्खन लाद देती. चीनी न हो तो गुड़ या शक्कर से काम लिया जाता. उस समय तक बच्चों का मैदान में जुटने का समय हो चुका होता. हरि रोटी को लपेटकर पूंगी बनाता और उसको मुंह में ठूंस जल्दी-जल्दी खाते हुए मैदान की ओर दौड़ लगा देता. जहां बच्चे उसके इंतजार में होते. खेल आरंभ होता. बच्चों के साथ-साथ हरि भी खेल में हिस्सा लेता. मगर खेल के बीच में ही उसकी चेतना उसको कहीं दूर खींचकर ले जाती. बच्चों के बीच खेल का हिस्सा होकर भी वह उनसे अलग, अकेला हो जाता.


घर से मैदान तक चारों और आसमान छूते वृक्ष थे. उनसे गले मिलती लताएं और फूलों से भरी क्यारियां थीं. वसंत आते वे क्यारियां फूलों से भर जाया करतीं. पूरा वातावरण इतना शीतल और सौम्य था कि मन साधक बन जाता. बालक हरि फूलों को देखता, तितलियों से संवाद करता, उनके पीछे-पीछे दौड़ता. भंवरों के गीत उसके रोम-रोम को नाद-सौंदर्य से भर देते. उनके साथ साथ उसका भी मन दूर कल्पनाओं में खो जाता. पिछली बार जो कहानी पढ़ी थी, जिस कविता का आनंद लिया था, जिस कल्पनालोक की सैर की थी, उसके बिंब मनस् में उभरने लगते. वह अपने आसपास बिंबों की खोज शुरू कर देता. दो भिन्न बिंबों के बीच संबंध स्थापित करने का प्रयास करता. इसी के साथ मन में कहानी, कविता उमड़ने लगती. वह शब्दों को जोड़ने का प्रयास करता. सोचकर हैरान रह जाता कि पिता कैसे एक के बाद एक शब्दों को जोड़कर बड़ी-बड़ी कहानियां और उपन्यास लिख जाते हैं. एक के बाद एक, हजारों शब्द कतार बांधे उनके पास कैसे चले आते हैं. दादा के मुंह से उसने काबुलीवाला कहानी सुनी थी. बताते हैं कि उसकी बांसुरी की आवाज पर बच्चे खिंचे चले आते थे. क्या पिताजी के पास भी कोई जादू है! क्या कोई मंत्रासिद्धि है जिससे शब्दों को अपने अनुशासन में ढाला जा सके! सुना है कि पिताजी की पुस्तकों को बड़े-बड़े लोग पढ़ते हैं. उनकी खूब प्रशंसा होती है. उनकी तरह क्या मैं भी अपनी कोई कहानी लिख पाऊंगा! क्या उसको लोग पढ़ेंगे भी! ऐसे ही न जाने कितने स्वप्न, कितनी कल्पनाएं, कितने ही रंग उसके मानस में आते-जाते, जो उसको अपने आप से दूर ले जाते थे.


हरि के पिता कहानियां लिखते थे. पर उसके दादा के पास तो कहानियों का खजाना था. रोज शाम को किताबों से समय चुराकर वह दादा के पास चला जाता. दादाजी गजब के किस्सागो ठहरे. किस्सा चार दरवेश, गुलबकावली, सिंहासन बतीसी, आलिफ लैला, आल्हा-ऊदल, नल-दमयंती के न जाने कितने किस्से उन्हें जुबानी याद थे. उन कहानियों को सुनते हुए वह उनमें गहरे डूब जाता. दूसरे बच्चों के साथ-साथ वह दादा जी से हर रोज नई कहानी सुनने की फरमाइश करता. दादाजी घूम-फिर कर दुबारा उसी कहानी पर लौट आते. कमाल यह कि उनके मुंह से सुनी-सुनाई कहानी दुबारा सुनना भी बुरा नहीं लगता था. वे सुनाते ही इस तरह से थे कि पुरानी से पुरानी कहानी भी नई और मजेदार बन जाती.


मां चाहे जितनी धर्मनिष्ठ हों, मगर हरि का मन तो किताबों में बसता था. पिताजी द्वारा घर पर मंगबाई गई बालपत्रिकाओं से ही उसकी जिज्ञासा शांत न होती थी. इसलिए स्कूल की पुस्तकों से जो समय बचता वह उसमें पिताजी के नाम आई पुस्तकों को पढ़ने का प्रयास करता. किसी पुस्तक में मन रम जाता तो पूरा पढ़कर ही दम लेता. हरि का मन पुस्तकों के आसपास ही रहता. साथ में किशोर वय की शरारतें भी उसको खूब भाती थीं. स्कूल में बुढ़िया के बाल बेचने वाले आते. एक पैसे में बालों के चार-चार गुच्छे मिले. वह उन्हें खूब चाव से खाता. मगर वह मिठाई उसको खाने से ज्यादा देखने में आनंद देती. रंग-बिरंगे गोले, जैसे डिब्बे में बंद गोल-मटोल बौने हों. कनस्तर का ढक्कन खुलते ही वे हवा में उड़ जाएंगे. फिर यहां से सीधे परीलोक में जाकर सांस लेंगे. बुढ़िया के बालों से भरे कनस्तर को देखकर वह यही सोचता. उसको देखते ही कल्पना को पंख लग जाते. बिना पंखों के वह हवाई उड़ान भरने लगता था.


बुढ़िया के बालों के अलावा एक और मिठाई बालमन की यादों से जुड़ी है. हरि जिस स्कूल में पढ़ने जाते था, उसके सामने एक चाशनी के गिलास बेचने वाला आता था. बड़ी अद्भुत मिठाई थी वह. मनभावन सपने की मिठास जैसी. चाशनी को अलग-अलग रंगों में इस तरह से ठंडा किया जाता कि उसमें लोच बनी रहती. इतनी लोच की कि उसको किसी भी आकार में ढाला जा सके. कुम्हार की मिट्टी की भांति. बुढ़िया के बालों की भांति वह भी मुंह में जाते ही घुल जाती. मीठा गिलास बेचने वाले के पास छोटे-छोटे गिलास हुआ करते थे. बचपन की तरह जतन से संजोए हुए. जैसे ही आधी छुट्टी होती, गिलास वाला स्कूल के गेट पर आकर खड़ा हो जाता. छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे बाहर आते. अपनी मुट्ठी में एकाध पैसा दबाए वे मिठाई वाले को घेरकर खड़े हो जाते. मिठाई वाला एक पैसा लेकर गिलास को उल्टा रखता. फिर अलग-अलग रंगों की चाशनी से थोड़ा-थोड़ा हिस्सा लेकर गिलास के ऊपर रखता. अपने हाथों से जल्दी-जल्दी उसके ऊपर थपथपी देता. कुछ ही पलों में चाशनी की पर्त गिलास को ढक लेती. चाशनी वाला अपनी उस कलाकृति का एक बार मुआयना करता, फिर गिलास को निकाल लेता. एक पैसा खर्च कर उस गिलास को खरीदने वाला बच्चा ऐसे खुश होता, मानो उसने देवताओं की रसोई से षडरस व्यंजनों से भरा पात्र उठा लिया हो. उस मिठाई में कल्पना भी थी और मिठास भी. इसलिए बचपन आसानी से उसके रंग में रंग जाता था.

Hari Krishna Devsare Life Story

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