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बचपन को प्रासंगिक बनाने वाले डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का बचपन (भाग-3)

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(गतांक से आगे)….

मिठास हरि को अच्छी लगती थी. कभी पिताजी तो कभी मां की ओर से, उसको जेबखर्च के लिए एकाध पैसा मिल ही जाया करता था. फिर भी मन बेईमान कभी-कभी हद से ज्यादा ललचाने लगता. उस समय उसके भीतर का शरारती बालक सारी हदें पार कर जाता. उस दिन भी वह घर से वापस लौट रहा था. रास्ते में गिलास बेचने वाले से टकरा गया. उसके खोमचे में रखी रंग-बिरंगी चाशनियां उसका मन ललचाने लगीं. मुहल्ले के बच्चे उसको घेर कर खड़े थे. गिलासवाले के हाथ बहुत तेजी से चल रहे थे. हरि उससे कुछ दूर हटकर खड़ा हो गया. जेब में पैसे होते तो वह भी बच्चों की भीड़ को चीरकर आगे चला आता. हक से मांगता. गिलासवाला उसका अपरिचित भी नहीं था. पर उस समय उसका ध्यान अपने ग्राहक बच्चों की ओर था. हरि को यह बहुत बुरा लगा. कोई उसकी इस तरह उपेक्षा करे, यह उससे सहन नहीं होता. रोज ही तो उससे गिलास बनवाता है. आज यदि जेब खाली है तो वह इस तरह उपेक्षा का पात्र हो गया. एक पल को सपना आया कि अचानक उसकी जेब में ढेर सारे पैसे आ गए हैं और वह भीड़ को चीरता हुआ गिलासवाले के ठीक सामने जाकर खड़ा हो गया है—


‘छोटा बनाऊं या बड़ा?’ गिलासवाला पूछता है.


‘सबसे बड़ा.’


‘एक पैसे का या आधे पैसे वाला?’


‘कहा न सबसे बड़ा! जितना बन सके, उतना बड़ा.’


‘क्या इतनी सारी मिठाई तू अकेला ही खा जाएगा?’ गिलासवाले ने कहा. इसपर सारे बच्चे हंसने लगे. हरि का दिवास्वप्न भंग हो गया. इसी के साथ उसका ध्यान फिर अपनी खाली जेब की ओर गया. गिलासवाला अपने ग्राहकों में उलझा हुआ था. हरि झुंझला उठा. उसने गिलास उठाया और भाग छूटा. गिलासवाला झुंझला उठा. उसने पास पड़े पत्थर को उठाया और हरि पर दे मारा. मगर हरि तो हरि. पत्थर की मार से खुद को बचाता हुआ वह वह भाग छूटा.


बचपन की तासीर ही कुछ ऐसी है. तन में रहे तब तक उमंग बरसाता है. मन में जमे तो रोम-रोम हर्षाता है. पर बचपन में बचपना भी हो ही जाता है. उस दिन हरि की वह कितनी बड़ी भूल थी, यह उसको घर जाकर मालूम पड़ा. गिलास को चटकर वह घर पहुंचा तो वहां पूरा माहौल तना हुआ था. पिताजी तो जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे. उनकी आंखों में अंगारे हरि ने पहली बार देखे थे. वार्डन पिता जो दूसरे बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाता हो, उसका अपना बेटा अनुशासन भंग करे, यह उनके लिए असह था. पिता का गुस्सा का शांत करने के लिए उस दिन कितनी छड़ियां हरि को अपनी पीठ पर झेलनी पड़ीं, यह उसको नहीं मालूम. बस इतना मालूम है कि पिता के हाथ थके थे, गुस्सा हल्का नहीं पड़ा था. मां ने कुछ नहीं कहा. लेकिन उनका तो अनकहा भी हरि के लिए बेंत की मार जितना पीड़ादायी थी. उस दिन वह घर के कोने में सुबककर रोता रहा. मां पल्लू से आंख पोंछ-पोंछकर रोती रही. मानो लाडले बेटे की पीठ पर पड़ी हर छड़ी को उसने अपनी पीठ पर झेला हो.


हरि स्कूल तो पहले भी जाता था. इस घटना के बाद पिता उसपर और भी ध्यान देने लगे. उसको छठी कक्षा में एक नए विद्यालय में जाने का अवसर मिला. यह पहले से अच्छा था. कुछ दिनों तक तो सबकुछ अजीब सा लगा. पर धीरे-धीरे वहां मन लगने लगा. नए दोस्त बनने लगे. नए शौक भी लगे. बैजनाथ हलवाई का पूरे शहर में नाम था. उसकी बनाई जलेबियां लोग दोना भर-भर कर खाते. हरि को घर से पैसे मिलते थे. पर इतने नहीं कि रोज-रोज जलेबियां खाने का अपना शौक पूरा कर सके. यही हालत उसके दोस्तों की थी. इसलिए सबने मिलकर एक रास्ता निकाल लिया. चाशनी का गिलास झपटकर खाने से मिली मार भूल चुकी थी. नया रास्ता निकला बैजनाथ हलवाई के यहां चोरी की जलेबी खाने का. कई लड़के दुकान पर जाकर लाला को घेर लेते. दो-तीन लड़के मोल-भाव करके लाला को बातों में उलझा लेते. बाकी का काम सामने रखे थाल में से जलेबियां खाना होता. थोड़ी देर बाद सब दुकान से हटकर मैदान में जमा होेते. वहां चोरी की जलेबियां बाहर निकाली जातीं. सारे दोस्त मिलकर हंसते-खाते. हरि उनका साथ देता. दोस्ती निभाता.


उस समय अपराधबोध में बार-बार उमड़ता. साथ ही याद आता गिलासवाले से चाशनी का गिलास उठाकर भाग छूटना. बाद में पिता का कोप. नरमदिल पिता का परशुरामी क्रोध. अचेतन में मारपीट उभर आती. इसी के साथ वह दोस्तों की भीड़ के बीच अकेला हो जाता. मन आत्मग्लानि से भर उठता. आखिर यह बात भी कब तक छिपती. वार्डन का बेटा हलवाई के थाल से जलेबियां चुराकर खाए. दूसरों को अनुशासन की सीख देने पिता के घर में ऐसी अनुशासनहीनता. सुनकर लोग दातों तले उंगली दबा लेते. पिता तो जैसे जमीन में गढ़ से गए. पर इस बार कहा कुछ नहीं. हरि चुपचाप भीतर चला गया. पिता की आंखों की मार पिछली छड़ी की मार से कहीं अधिक घातक थी. इस बार मन भीतर ही भीतर कराह रहा था. कई बार मन हुआ कि मां से अपने मन की बात कहे. कहे कि पिता के हाथ में उनकी छड़ी थमा दें. और वे मार-मार कर लहूलुहान कर दें. ताकि फिर कभी वह चाहकर भी गलती न कर सके. ऐसा सबक दें कि जिंदगी-भर याद रहे. परंतु मां की चुप्पी भी पिता जितनी ही गहरी थी. चुप्पी की मार, हरि को पीठ पर पड़ी छड़ियों की मार से ज्यादा घायल कर रही थी. कोई ऊपरी दर्द नहीं था. न शरीर पर कोई घाव था. फिर भी उस रात वह ढंग से सो न पाया. गुमशुदा नींद को आंखें तारों के बीच खोजती रहीं. वह रात-भर कराहता रहा.


साहित्यिक धरा पर पहला कदम

साहित्यकार पिता, घर का साहित्यिक माहौल, किशोर हरि भला उससे अछूता कैसे रहता. उस घर में बालसखा जैसी पत्रिकाएं आती थीं. उन्हें पढ़ते हुए मन में न जाने कितनी कल्पनाएं उभरतीं. कितने ही बिंब तन-मन को रोमांचित कर जाते. लेकिन धीरे-धीरे सब के सब बिला जाते. हवा में बने शब्दचित्रा कागज पर आते-आते गायब हो जाते. एक बार मन ने जोर मारा. उस समय स्कूल की कापी साथ थी. उसने कलम उठाई और लिखा—


आंधी आई आंधी आई

धूल उड़ाती आंधी आई


कविता पूरी हुई तो उसको अद्भुत आनंद मिला. पहली बार उसने सर्जना के आनंद से सराबोर हुआ था वह. देर तक कापी के उस पन्ने और कविता को देखता रहा. उस कविता को उसने बाद में भी कई बार पढ़ा. पढ़ते हुए लगा जैसे चलते-फिरते सपने से गुजर रहा हो. बाद में जहां उसको जरूरी लगा, कविता में संशोधन भी किया. एक दिन जेबखर्च के लिए मिले पैसों से उसने डाकटिकट खरीदा और बालसखा के संपादक के नाम भेज दिया.


कविता भेजते समय हरि के मन में धुकधुकी मची थी. कई दिनों तक अजीब-अजीब खयाल आते रहे. संपादक कविता को देखकर क्या सोचेगा? क्या यह उसको पसंद आएगी? वह इसको छापेगा भी? अगर छप गई तो पिताजी इस कविता को देखकर क्या कहेंगे. ऐसे ही अनगिनत सवालात उसके दिमाग में चकरघिन्नी की भांति घूमते. कई दिन इसी तरह गुजरे. वह निराश होने लगा. अपने कवित्व से विश्वास उठने लगा. कविता की बात उसके दिमाग से बिसर-सी गई.


एक दिन वह स्कूल से लौटा था. हमेशा की तरह बस्ता रखकर मां का इंतजार करने लगा. रोज वह देखते ही रसोई में घुस जाती थी. खाना परोसने. आज देर क्यों? तभी बैठकखाने से पिता की आवाज आई—


‘सुनो, आज जो डाक आई है, जरा लाना तो?’


इधर कई दिनों से हरि के मन में डाक का नाम सुनते ही धुकधुकी-सी मच जाती थी. उस दिन पिता ने आने के साथ ही डाक का नाम लिया तो मन एकाएक उछलने लगा. उस दिन डाक में परिवर्तनकारी संदेश था. यह संदेश हरि को अपने जन्मदाता से ही मिला. उन्होंने पत्रिका का नाम जानबूझकर लिया था. उसको देख तो वे बहुत पहले चुके थे. हरि को पहली रचना के प्रकाशन की सूचना अपने पिता ही से मिली. साथ में शाबाशी भी. हरि अपने पिता को बहुत प्यार करता था. मगर उसमें सम्मान का भाव अधिक था. शायद इसलिए कि पिता अध्यापक थे. या इसलिए कि वे बड़े लेखक भी थे. इसलिए सम्मान के कारण उनके सामने वह बचपन में सहज नहीं हो पाता था. जितना मां के सामने. मां के सामने वह अपने मन की गांठें अपने आप ढीली पड़ने लगतीं. पिता के आगे शांत खड़े रहकर भी लगता कि वह पूरी तरह अनावृत है. उनकी पैनी नजर के सामने वह स्वयं को असहाय पाता था. मां के सामने सब-कुछ खोलकर भी अपने व्यक्तित्व की महत्ता पर भरोसा बना रहता. जबकि पिता के समक्ष बिना कुछ कहे भी अस्तित्व-शून्यता का संकट घेर लेता.


बचपन से किशोरावस्था तक यही हालत बनी रही. स्थिति जब बदली उस समय तक मां ऊपर जा चुकी थी. घर में मन की गांठ खोलने के लिए सिवाय पिता के कोई और न था. मां को खोकर ही वह समझ पाया कि पिता के अंतर्मन में एक मातृ-ग्रंथि भी है. जिसके आगे अपने व्यक्तित्व के विलीन हो जाने का खतरा नहीं है. बल्कि उसके आगे स्वयं विसर्जित होकर भी आनंद प्राप्त किया जा सकता है. विसर्जन का आनंद, उस दिन हरि को नया शब्द-बोध हुआ, जिसमें सृष्टा की अनुभूति भी सम्मिलित थी. एक पल को उसे लगा कि ये अनचीन्हे शब्द हैं. उसी ने इनकी खोज की है.


रीवा में जहां हरि पढ़ता था, वहां से चित्राकूट धाम बस थोड़ी दूर था. निकट ही रामवन था. आस्था की पावनस्थली. जहां जिसका भरोसा देकर बुद्धिमंत इसी जन्म में सुखामोद लूटते हैं और भावप्रवण पूर्वजन्म के पापबोध से डरे-डरे भ्रम के सहारे जिंदगी बिता देते हैं. यह भी विचित्रा संयोग है कि दुनिया में अधिक संख्या भावप्रवण लोगों की ही होती है. उनकी होती है जो दिमाग के बजाय दिल से निर्णय लेते हैं. भावनाओं को बुद्धि पर वरीयता देते हैं. कभी धर्म, कभी जाति और कभी राष्ट्रभक्ति के बहाने, अकसर वे छले भी जाते हैं. चित्राकूट धाम में राम के साथ-साथ तुलसी की चरणरज भी पड़ी है. देश-विदेश के सैलानी वहां आते हैं. सावन के महीने में वहां बहुत बड़ा मेला लगता है. तुलसी कृत रामचरितमानस तो घर-घर पढ़ी जाती. विद्यालयों में उसका सस्वर पाठ करना सिखाया जाता. इससे विद्यार्थियों को रामचरितमानस की बहुत-सी चैपाइयां कंठस्थ हो जातीं. हरि को भी रामचरितमानस के अयोध्या कांड और सुंदरकांड कठंस्थ हो चुके थे. वह गाता भी खूब था. इसके लिए गुरुजन उसकी सराहना करते. घर आने वाले मेहमान रामचरितमानस की चैपाइयां सुनाने की फरमाइश भी कर बैठते. हरि उन सबका मान रखता. उस समय वह कहां जानता था कि गले की मिठास ही उसके लिए एक परीक्षा बन जाएगी. उसकी गायकी उसके सामने एक ऐसी चुनौती पेश करेगी, जिसके स्मृति उसके स्मृतिपटल पर सदा-सदा के लिए टंक जाएगी.


उस समय उसकी अवस्था सात या आठ वर्ष की रही होगी. मां को अचानक किसी गंभीर रोग ने आ घेरा. रोग गंभीर था. वह चारपाई से उठ भी नहीं पा रही थी. पिता परेशान. डाक्टर दवा देकर जाता था. लेकिन हालात बिगड़ते जा रहे थे. यह वह आज सोचता है. उस समय उसकी उम्र किसी भी बात को गंभीरता से लेने की कहां थी. बचपन हवा के झोंकों और तितलियों के साथ उड़ने के लिए प्रयासरत रहता था.


उस रात वह सोने का प्रयास कर ही रहा था कि मां का संदेश आ गया. वह उसको बुला रही थी. वह मां के पास पहुंचा. उस समय मां छत की ओर निहार रही थी. उसकी आंखों में सूनापन देख वह परेशान हो गया. मां ने उसको अपने पास ही चारपाई पर बिठा लिया बोली—‘हरि, मैंने तेरे रामायण पाठ की बहुत प्रशंसा सुनी है. कभी सुना नहीं. आज बहुत मन है….मुझे सुनाएगा न!’


‘हां, मां.’ वह बस इतना ही कह पाया था.


‘तो ठीक है, सुंदर कांड सुना सकेगा.’


मां के आग्रह पर हरि ने सुंदर कांड का पाठ आरंभ कर दिया. पिताजी उस समय किसी काम से बाहर थे. जननी की बगल में बैठा हरि रामकथा का पाठ करता रहा.


सुंदर कांड के पाठ में मां के साथ वह भी इतना डूबा कि पाठ कब पूरा हुआ, वह जान ही नहीं पाया. बावजूद इसके मन में कहीं कोई बेचैनी छाई थी. अपनी आवाज में इतना ठहराव उसने इससे पहले कभी अनुभव नहीं किया था.


अपनी मां से हरि की वह आखिरी मुलाकात थी. सुंदर कांड की चैपाइयों के बीच भीतर के मौन से भरी हुई. हरि की आदत थी. हर सुबह चक्की की घरघराहट के साथ जगने की. उस दिन चक्की उदास, मौन पड़ी रही. चूल्हे न सांस तक न ली. रोज हवा में तड़के से ही राग-प्रभाती गूंजने लगता था. पर आज वह ठहरी-ठहरी और शोक-निमग्न थी. उनके स्थान पर घर में ढेर सारे कदमों की आहट और तरह-तरह की आवाजें महसूस हुईं. उत्सुकता के वशीभूत उसने आंखें खोलीं. आंखें मलते हुए वह बाहर आया. आंगन में भीड़ थी. जैसे पूरा गांव वहां जुट आया हो. औरतों का रोना सुनकर वह उदास हुआ. बालक को जीवन के पीड़ादायी सत्य से कुछ समय तक दूर रहने के लिए एक पड़ोसी ने अपना धर्म निभाया. वह उसको अपने साथ घर ले गया.


पड़ोसी का बेटा उसका गहरा दोस्त था. दोनों साथ-साथ विद्यालय आते-जाते. खाते-पीते, खेल के समय दोनों एक-दूसरे के साथ जोड़ी भी बना लेते थे. दोस्त के साथ वह सब कुछ भूल जाता था. परंतु न जाने क्या बात थी जो उस दिन उसको अपनी मां की याद आ रही थी. कानों में सुंदर कांड की उन चैपाइयों की गूंज थी, जिन्हें सुनने की मां ने फरमाइश की थी. घर में जुटे इतने सारे लोगों का कारण भी वह जानना चाहता था. तब तक दोस्त की मां ने उसके हाथों में मीठी गोलियां थमा दीं. बंगाराम की मीठी गोलियां, पाते ही पल-भर को सबकुछ बिसर-सा गया. गोलियों की मिठास में डूबकर उसने क्या खोया है, उस समय वह समझ ही नहीं पाया था.


दोपहर बाद घर लौटा तो एक अजीब-सी उदासी घर में पसरी हुई थी. घर में सब थी, मां के सिवाय. उसने मां के बारे में पूछने पर एक रिश्ते की स्त्री ने उसको छाती से चिपटा लिया. मां नहीं रही, यह भनक उसको वहां मौजूद लोगों की बातों से लग चुकी थी. किंतु मां के न होने का असली मर्म उसको वर्षों बाद समझ आया. उसके बाद पिता ने हालांकि मां की कमी को पूरा करने की कोशिश की थी, लेकिन दुनिया का कोई भी पिता यदि मां बन पाता तो वह शायद ईश्वर ही बन जाता.


मां के जाने के बाद हरि ने किताबों में अपना अकेलापन बांटने का प्रयास किया. पहले पिता द्वारा मंगवाई गई पुस्तकें और पत्रिकाएं ही घर आती थीं. अब वह खुद भी पत्रिकाएं मंगवाने लगा था. उसकी रचनाएं प्रकाशित होने पर लेखकीय प्रतियां भी घर आती रहती थीं. पढ़ाई का दबाव लगातार बढ़ रहा था. उसके पास खुद को व्यस्त रखने के बहुत से बहाने थे. तो भी रात को जब वह चारपाई पर जाता नींद बुलाने के लिए देर तक प्रयास करना पड़ता. और उतनी देर में मां की चक्की की घरघराहट, उसकी गोद में सिर रखकर अधलेटा हो जाना, मां की दी हुई घी और चीनी की पूंगी खाना. उसकी लोरियों की मिठास. एक-एक कर सब उसको याद आता था. उस समय वह खुद को बहुत अकेला महसूस करता. उसको लगता कि पूरी दुनिया में वह अकेला हो चुका है. मां के बाद पिता से अपनापा बढ़ा था. उनके पास जाने में अब पहले जितनी झिझक भी महसूस नहीं होती थी. पिता के पास जाकर ही उसको उनके अकेलेपन का पता चलता. तभी वह जान पाता कि ऊपर से दृढ़ दिखने वाले पिता भीतर से कितने खोखले हो चुके हैं. उस समय मां के न होने का दुख सहस्रगुना हो जाता.

क्रमश:

साभार: ओमप्रकाश कश्यप

Hari Krishna Devsare And Bal Sahitya

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