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बचपन को प्रासंगिक बनाने वाले डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का बचपन (भाग-4)

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(गतांक से आगे)…

विद्यालय की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. हरि आगे पढ़ना चाहता था. लेकिन पिता अपनी नौकरी के दिन पूरे कर रिटायर हो चुके थे. घर का प्रबंधन भाई के हाथों में था. पिता चाहते थे कि हरि आगे पढ़े. उसे लेकर बहुत से सपने उनकी आंखों में थे. सर्जक पिता अपने पुत्र में भविष्य के बड़े रचनाकार को उभरते देख रहा था. परंतु परिस्थितियां बदल चुकी थीं. घर पर आर्थिक चैधराहट उनके बड़े बेटे की थी. उसकी प्राथमिकताएं अलग थीं. इससे घर में तनाव उभरने लगा था. उस समय हरि को मां की याद आती. सोने से पहले वह देर तक मां के बारे में सोचता रहता. पत्रिका के पन्नों में वात्सल्य जैसा ही कुछ खोजने का प्रयास करता. कागज-कलम को माध्यम बनाकर वेदना को अलविदा कह देना चाहता. सच तो यह है कि संघर्ष के दिनों में उसकी कलम ही उसका एकमात्रा संबल थी. पर मां की कमी की भरपाई करना तो शायद विधना की कलम के लिए भी असंभव है.


उन दिनों उसकी रचनाएं खूब छप रही थीं. कविता-कहानी के अलावा लेख भी.उसका मन बच्चों को लिखने में रमता. शायद इसलिए कि बच्चों के लिए लिखते समय वह अपनी मां की स्मृति के एकदम करीब पहुंच जाता था. उसको अपना बचपन याद आता, जो थोड़े ही दिन पहले उससे हाथ छुड़ा बैठा था. आरंभ में उसने कविताएं ज्यादा लिखी थीं. लेकिन घर में लगातार बढ़ते अर्थसंकट ने उसको गद्य लेखन की ओर उन्मुख किया था. इसलिए कि कविता के प्रकाशन पर पांच-दस रुपये से अधिक आमदनी न होती थी. जबकि कहानी छपने पर बीस-पचीस रुपये आसानी से प्राप्त हो जाते थे. आर्थिक संकट से जूझते हरिकृष्ण के लिए इतनी राशि बहुत महत्त्व रखती थी.


जी हां, अब वह हरि से हरिकृष्ण बन चुका था. हरि नाम तो यूं भी मां के साथ ही विदा ले चुका था. ‘हरि’ संबोधन मां के मुंह से सुनना ही अच्छा लगता था. काॅलेज के उसके दोस्त अध्यापक सब उसको हरिकृष्ण कहकर बुलाते थे. संपादकों की चिट्ठियां भी इसी नाम से आती थीं. संपादकों में भी लल्लीप्रसाद पांडेय उसके मित्रा और शुभचिंतक थे. अपनी पत्रिका बालसखा में वे हरिकृष्ण की रचनाएं नियमित रूप से छापते. जानते थे कि संपादक का धर्म केवल सामने आई रचनाएं प्रकाशित कर देना नहीं है. संपादनकर्म रचना के चयन और उसके प्रस्तुतीकरण से बहुत आगे की चीज है. अपने लेखक के परिमार्जन करना उससे अपनी पत्रिका की भावभूमि के अनुकूल लिखवाना भी संपादकीय धर्म है. हिंदी में ही ऐसे अनेक लेखक हुए हैं, जिनपर उनके प्रारंभिक संपादकों का प्रभाव पड़ा और इसको वे पूरी विनम्रता के साथ आजीवन स्वीकारते भी रहे. इस बारे में यदि शोध हो तो मानवीय मस्तिष्क और लेखकमन की अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं.


लल्लीप्रसाद पांडेय जानते थे कि दसवीं-बारहवीं का विद्यार्थी कैसी हिंदी लिख सकता है. इसलिए रचना छपने से पहले वे उसकी भाषा मंे जरूरी सुधार कर देते. अस्वीकृत रचना को भी वे शब्द दर शब्द पढ़ते थे. उसमें से वर्तनी की अशुद्धियां निकालते, भाषा को तराशते, शैली की कसावट के लिए संकेत देते. आशय है कि रचना अस्वीकृत होने पर भी हरिकृष्ण को इतना कुछ मिल जाता था जो अन्यत्र दुर्लभ ही था.


पढ़ाई के मामले में भी वह औसत ही था. फिर भी सब उसको मानते. इसलिए कि उसके पिता लेखक हैं. वह खुद भी लेखक है. अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लिखता है. लेकिन हरि जानता था कि जो जस उसको मिला है, वह भी उसका अपना नहीं है. उसके पिता का योगदान है जिन्होंने उसमें पढ़ने के संस्कार डाले. जो लगातार घर में पत्रिकाएं मंगवाते थे. हरिकृष्ण की जब भी कोई रचना प्रकाशित होती, पिता मुदित मन उसकी पीठ थपथपा देते हैं.


हरिकृष्ण जैसे-जैसे शिक्षा के पायदान पार कर रहा था, घर में रुपये की किल्लत बढ़ती ही जा रही थी. संघर्षमना हरिकृष्ण ने वाराणसी से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित दैनिक ‘आज’ में लिखना आरंभ कर दिया था. उसका लेखन केवल बालसाहित्य तक सीमित नहीं था. दैनिक समाचारपत्र की आवश्यकता को समझते हुए वह राजनीति, धर्म, संस्कृति और समाज में से किसी भी विषय पर लिख लेता था. यह सब केवल शौकवश नहीं था. मजबूरी थी. हरिकृष्ण को का॓लेज की पढ़ाई जारी रखने के लिए रुपयों की जरूरत थी. घर का प्रबंधन कार्य भाई साहब के हाथों में था. सेवानिवृत्त पिता को मिलने वाली पेंशन से गुजारा चल नहीं पाता था. इसलिए हरिकृष्ण अपनी कलम के भरोसे था. ‘आज’ में लिखने का दूसरा कारण यह था कि उसकी व्यवस्था बहुत अच्छी थी. खासकर पारिश्रमिक को लेकर. हरिकृष्ण की कोई न कोई रचना हर सप्ताह प्रकाशित होती. महीना पूरा होते-होते ही डाकिया घंटी बजाते हुए हाजिर हो जाता था. हरिकृष्ण को यूं तो पूरे महीना डाकिया का इंतजार रहता, मगर आखिरी तारीख आते ही उससे मिलने की उत्सुकता अत्यधिक बढ़ जाती थी.


हरि अब पहले जितना भोला भी नहीं रह गया था. लेखन के बदले मिले पैसे घरवालों के हत्थे न चढ़ें, इसकी भी अचूक व्यवस्था उसने की हुई थी. जब भी कोई मनीआर्डर आता, डाकिया चिट्ठी पर कोई न कोई संकेत छोड़ जाता था. अवसर मिलते ही हरिकृष्ण डाकखाने जा धमकता. सौ-सवा सौ का मनिआर्डर होता. पर इतनी रकम भी उन दिनों उसके लिए कुबेर के खजाने से कम न थी. डाकिया भी एकदम भला न था. समझौते के तहत हरिकृष्ण को डाकिया और उसके साथियों के नाश्ते-पानी का इंतजाम करना होता. बैजनाथ हलवाई की दुकान पर जमकर जलेबियां और समोसे उड़ाए जाते. लेकिन पांच-छह रुपये गंवाने के बाद ही सौ रुपये से ऊपर की रकम हाथ लग पाती थी. बल्कि इतने रुपये पाने के लिए यह सब वह खुशी-खुशी करता था.


एक युवा लेखक के रूप में हरिकृष्ण की पहचान बनती जा रही थी. अमृतलाल नागर, सोहनलाल द्विवेदी जैसे साहित्यकारों का उससे परिचय था. उनके साथ पत्रा-व्यवहार भी चलता रहता था. हालांकि इन संपर्कों के पीछे पिता का ही योगदान था. पिता के कारण ही हिंदी के दिग्गज साहित्यकार हरिकृष्ण को मान देते थे. उसकी अपेक्षा पिता बहुत संकोची थे. अपने अथवा अपने कृतित्व के बारे में बढ़-चढ़कर बोलना उनका स्वभाव ही नहीं था. उनकी अपेक्षा हरिकृष्ण स्वयं को बर्हिमुखी पाता था. इसलिए अमृतलाल नागर जैसे दिग्गज लेखक भी उनके पिता द्वारा लिखे गए उपन्यासों को हरिकृष्ण का लिखा समझने की भूल कर बैठते थे. उन उपन्यासों के कारण बहुत से लोग हरिकृष्ण को प्रौढ़ लेखक समझते थे. इस पर कई बार तो हरिकृष्ण को हंसी भी बहुत आती थी.


उस समय की परंपरा के अनुसार हरिकृष्ण का विवाह भी कम उम्र मंे ही हो चुका था. वह खुश था. इसलिए भी कि उसकी जीवनसंगिनी विभा पढ़ी-लिखी हैं. साहित्य में रुचि और लेखन का संस्कार साथ लाई हैं. पुस्तकें विभा को भी उतना ही ललचाती हैं जितना हरि को. जानती हैं कि साहित्य जीवन के सारे संघर्षों को खुशी-खुशी सहने का भरोसेमंद सहारा है. गृहस्थी के कामों के बीच मूड बनता तो वह भी शब्दों की नाव खेने लगतीं. लेकिन दोनों के लिखने का क्षेत्रा अलग है. विभा दुनिया की आधी आबादी की चिंता करती है. उसकी अस्मिता के लिए शब्द रचती है. हरिकृष्ण धीरे-धीरे बच्चों का लेखक बनने लगे थे. बावजूद इसके उनका दांपत्य सफलता की ओर बढ़ रहा था. दोनों एक-दूसरे की पूरकगाथा रचने के प्रयास में लगे रहते थे.


हरिकृष्ण जब हरि था, तब भी सोचा करता था कि माता-पिता बच्चों को किताबों से दूर क्यों रखते हैं. सबके माता-पिता उसके माता-पिता जैसे जैसे क्यों नहीं हैं. एक घटना उसको हमेशा याद आती है. बाजार में एक बच्चा पुस्तकों को सजी देख ललचाने लगा. उसने अपनी मां से पुस्तक की फरमाइश की. मां ने झिड़क दिया. वहां से खींचकर वह बच्चे को आइसक्रीम दिलाने ले गई. हरिकृष्ण को दुःख हुआ. वह बस सोचता की रह गया कि उस मां ने सिर्फ पेट की भूख को ही महत्त्व क्यों दिया? उसकी मानसिक जरूरतों को मां होते हुए भी वह क्यों नहीं समझ पाई? क्या ऐसा करने वाले वह अकेली मां है? क्या कोई दूसरी मां होती तो बच्चे को उसकी पसंद की पुस्तक दिला देती? ऐसे अनगिनत सवाल देर तक हरिकृष्ण के दिमाग में चक्कर काटते रहे. उस समय तक उसका सोचना सिर्फ सोचना था. विचारों का उद्वेलन. कौन जानता था कि एक दिन वही उद्वेलन बढ़ता हुआ वटवृक्ष के समान हिंदी गगनमंडल का सबसे चमकीला नक्षत्रा होगा? चार सौ से अधिक पुस्तकें उसके नाम के आगे जुड़ी होंगी! बड़े-बड़े विद्वान उसकी कलम का लोहा मानेंगे! और तो और हरि भी इतना बड़ा कहां सोच पाता था! वह तो बस लिखता था. इसलिए कि कलम चलाना उसकी विवशता. उससे शिक्षा का खर्च निकलता है. पहचान के गुमशुदा हो जाने का संकट नहीं रहेगा.


हरिकृष्ण उन दिनों एमए में था. लेखक के रूप में उसकी छवि बनने लगी थी. दिग्गज साहित्यकार उसकी प्रतिभा और लग्न का लोहा मानते. कलम आदमी को कितना ऊंचा उठा सकती है, इसका कुछ-कुछ अनुभव हरि को उन दिनों होने लगा था. रेडियो पर उसकी कविताओं का पाठ होता. उन दिनों रेडियो के चैनल कम थे. लेकिन उन्हें श्रोताओं का टोटा बिलकुल नहीं था. रेडियो का पत्रकारिता कार्यक्रम तो साहित्यकारों की भीड़ खींचने वाला था. उनके लिए श्रोता पूरे सप्ताह एक-एक कर इंतजार में अपने दिन काटते. हरिकृष्ण की कविताएं रेडियो पर खूब प्रसारित होतीं. उसकी रचनाएं पढ़कर लोग अनुमान लगाते कि वह कोई साठ-सत्तर वर्ष का प्रौढ़ व्यक्ति होगा. उसके स्थान पर जब बीस वर्ष के युवा को देखते तो चैंक पड़ते. उन्हीं दिनों की बात. एक कार्यक्रम के सिलसिले में रेडियो स्टेशन गए थे. उससे पहले कार्यक्रम अधिकारी से मिलकर चले आते थे. इस बार पहुंचे तो बताया गया कि केंद्र संचालक मिलना चाहते हैं. युवा मन था. उनीस-बीस की वयस्. फौरन केंद्र संचालक के कमरे में जा धमके.


‘तुम देवसरे हो?’ आवाज में विस्मय था.


‘जी…मैं ही हूं.’


‘हूं…परीखाना जैसा ऐतिहासिक उपन्यास क्या तुम्हीं ने लिखा है?’


‘वह मेरे पिता की रचना है….वे अध्यापक हैं.’


‘और तुम क्या करते हो?’


‘एम. ए. कर रहा हूं?’


‘रेडियो में नौकरी करोगे?’ एकाएक आॅफर मिला. हरिकृष्ण चैंक भी नहीं पाया. उस समय बीसवां वर्ष बस आरंभ ही हुआ था. रेडियो की नौकरी का मतलब और उसकी जिम्मेदारी क्या होती है, यह समझ भी नहीं पाया था. पर जो हुआ उससे मन अत्यधिक प्रफुल्लित था. इस खुशी का नौकरी की आश्वस्ति से कोई मतलब न था. खुशी इस बात की थी कि लोग उसकी कलम की ताकत को पहचानने लगे हैं.


बहरहाल उस दिन अपना अता-पता नोट कराकर वह घर लौट गया. फिर जैसे कुछ हुआ ही न हो, घर आने के बाद उसने खुद को अध्ययन के प्रति समर्पित कर दिया. उसके बाद भी आकाशवाणी जाना हुआ. वहां सबसे मिलना-जुलना भी होता था, लेकिन उस दिन क्या बातें हुई थीं, कौन-सा वादा किया गया था, यह बात एकदम बिसरा दी गई थी. विस्मृति इसलिए भी थी कि उसने खुद को अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया था. घर में कलह रहने लगा था. रिटायर्ड पिता की पेंशन के सहारे जीवन खिसकना मुश्किल था. इसलिए वह परीक्षा में किसी भी प्रकार की शिथिलता से बचना चाहता था.


हरिकृष्ण भले ही दूरदर्शन की उस मुलाकात और उस दौरान हुए वायदे को भुला चुका हो. पर वे नहीं भुला पाए थे. जैसे ही परीक्षा समाप्त हुई, हरिकृष्ण को फिर बुलावा आ गया. इस बार कार्यक्रम पेश करने का निमंत्राण नहीं था. वह नौकरी का बुलावा था. जिंदगी का खास मोड़. जिसपर आगे बीस वर्ष तक रचनाधर्मिता को परखना था. एक चुनौती, एक संकल्पयात्रा, जिसपर न केवल टिके रहना था, बल्कि अपनी रचनाधर्मिता को भी बनाए रखना था.


बालसाहित्य के प्रति रुझान

हरिकृष्ण बच्चों के लिए लिखना तो 1951 में प्रारंभ कर चुका था. लेकिन बालसाहित्य उसके सृजनसंसार का प्रमुख बना 1961 में. घटना अतिसाधारण थी. घर-घर की अकथ कहानी जैसी. रोजमर्रा की सामान्य-सी घटना. आम होने के कारण ही ऐसी घटनाएं साधारणजन की पकड़ से फिसल जाती हैं. पर जो लोग ऐसी घटनाओं पर ध्यान देते हैं, ध्यान देने की योग्यता रखते हैं, उन्हें पकड़कर उनपर अपनी पूरी लगन और विश्वास से काम करते हैं, वही इतिहास बनाने और इतिहास बदलने का भरोसा भी रखते हैं. यह कोरी किवदंति नहीं, सच है कि ऐसे लोग इतिहास बदल भी देते हैं.


हरि के लिए वे भोपाल प्रवास के दिन थे. उन दिनों बड़े शहरों में भी किताब-कापी की गिनी-चुनी दुकानें ही होती थीं. लेकिन जो होतीं, वे हर वर्ग की पसंद का ख्याल रखती थीं. उपर लोकप्रिय फुटपाथी साहित्य से लेकर रवींद्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, कृश्न चंदर, गुरुदत्त जैसे दिग्गज साहित्यकारों की पुस्तकें सहज ही मिल जाया करती थीं. रामायण, महाभारत, आल्ह-खंड और नल-दमयंती के अलावा भजनों और रागनियों की पुस्तकें भी अपने-अपने ग्राहक वर्ग को खूब लुभातीं. पत्रिकाओं के नए-पुराने अंक भी मिल ही जाते. कीलों के साथ बंधी रस्सी और खूंटियों पर टंगे होते. साथ ही गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी, ओमप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे लोकप्रिय रचनाकार भी दुकानों के आगे ‘टंगे’ हुए मिल जाते थे.


पुस्तकों के आखिरी पन्ने पर प्रकाशक की ओर से एक अनिवार्य इबारत जरूर टंकी होती कि ‘फलां’ जनप्रिय लेखक के असली प्रकाशक वही हैं. नक्कालों से सावधान. इसी के साथ उस लेखक के पिछले प्रकाशित उपन्यासों के साथ आगामी उपन्यास का जिक्र भी अवश्य होता. यह हिंदी की उभरती शब्दशक्ति का नमूना था. साहित्यकार बंधु इससे ईर्ष्या कर सकते हैं, मगर यह सम्मान और हैसियत उन्हीं जनप्रिय लेखकों को मिल पाती थी, जो खुद को नहीं केवल अपने पाठकों को ध्यान में रखकर लिखते थे. अकादमियों और संस्थाओं से मिलने वाले पुरस्कार-सम्मान नहीं, केवल पाठकों का प्यार ही उनकी असली उपलब्धि होते थे. हालांकि कमाता तब भी प्रकाशक ही था. उनके लिए पाठक की नब्ज पहचान लेने वाले वे लेखक असल में एक ब्रांड थे, जिनसे मात्र कुछ सौ या हजार रुपये में उनकी पांडुलिपि के सर्वाधिकार खरीद लिए जाते. कभी-कभी ब्रांड महज ब्रांड ही होता. उस नाम से कई-कई छद्म लेखक अपने लिखने की साध और जेबखर्च पूरा कर लिया करते थे.

क्रमश:

साभार: ओमप्रकाश कश्यप

Hari Krishna Devsare Contribution In Bal Sahitya

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